फिर सुबह होगी
रात ने ओढ़ रखा है
घने कुहरे को
बना कर काली चादर
इंतज़ार है उसे सुबह का
जब वो उतार फेंके गी
इस आवरण को
और निखर जाएगी
दुधिया उजली धुप-सी
जानती है वो
साँझ के होते ही
फिर दुबक जाना है उसे
काली देह में
खुद से खुद डरती-सी
मगर! खुश है इस बात से
कि फिर सुबह होगी!
-सुषमा भंडारी